अनुभूतियां और अन्तर्दर्शन

 

    आध्यात्मिक अनुभूति का अर्थ है अपने अन्दर के भगवान् के साथ सम्पर्क (या बाहर, जो उस क्षेत्र में एक ही बात है) । और यह हर जगह, सभी देशों में, सभी जातियों और सभी युगों में एक-सी अनुभूति होती है ।

१८ फरवरी, १९३५

 

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तुम्हें हमेशा अपनी अनुभूतियों से अधिक बड़ा होना चाहिये ।

 

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इस प्रकार की अनुभूति के वश में होने की अपेक्षा उसे अपने वश में रखना हमेशा अच्छा होता है । मेरा मतलब है कि अनुभूति अपने-आप में अच्छी और उपयोगी है, उसे अपनी पसन्द के समय न आकर ऐसे समय आना चाहिये जब हम चाहें । मुझे ऐसा लगता है कि ऐसी अनुभूतियों को तब आने देना ज्यादा अच्छा है जब तुम चुपचाप घर पर हो या जब ध्यान का समय हो । जब तुम काम में लगे हो तो हमेशा यह ज्यादा अच्छा होता है कि तुम अपने शरीर और उसकी क्रियाओं के बारे में पूरी तरह सजग रहो ।

 

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     प्रारम्भिक भूल तो यह थी कि तुमने उसी अनुभूति को फिर से पाना चाहा जो तुम्हें जवानी में हुई थी ।

 

     जीवन में अनुभूतियां हूबहू नहीं दुहरायी जातीं और अगर वे ज्यादा अच्छी यानी अधिक ऊंची और अधिक सच्ची न हों तो निश्चित रूप से ज्यादा खराब हो जाती हैं ।

 

     किसी अच्छी और अनुकूल अनुभूति के बाद मानव से भगवान् की ओर उठना जरूरी है वरना नारकीय और पैशाचिक में जा गिरने का डर रहता है ।

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    कुछ समय के लिए अमुक आन्तरिक अनुभूतियों का होना उपयोगी हो सकता है लेकिन इस वृत्ति को स्थायी रूप से न बनाये रखना चाहिये क्योंकि यह केवल आंशिक सत्य है और पूर्णयोग के समग्र सत्य से बहुत दूर है ।

 

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    सच्चा अन्त-प्रकाशन है भगवान् का अन्त-प्रकाशन ।

 

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    तुम जिस अचंचलता और प्रकाश के अवतरण का अनुभव कर रहे हो वह इस बात का चिहन है कि तुम्हारे अन्दर साधना सचमुच शुरू हो गयी है । इससे पता चलता है कि अब तुम सचेतन रूप से 'दिव्य शक्ति' और उसके कार्य के प्रति खुले हो । सत्ता के अन्दर अचंचलता और प्रकाश का अवतरण योग की नींव का आरम्भ है । पहले इसका अनुभव मन और ऊपरी भाग में ही हो सकता है लेकिन बाद में वह नीचे की ओर बढ़ता है, यहां तक कि सभी चक्रों को छूता है और सारे शरीर में इसका अनुभव होता है । पहले यह केवल दो-एक क्षण के लिए आता है, बाद में ज्यादा लम्बे समय तक रहता है ।

 

    दूसरी अनुभूतियों से लगता है कि तुम्हारे अन्दर अन्तर्दर्शन की क्षमता खुल रही है । यह भी योग का एक भाग है । तुमने जो अग्नि देखी है वह शायद प्राणिक सत्ता में अभीप्सा की अग्नि हो । तुमने जो दूसरी चीजें देखी हैं वे इतनी निश्चित नहीं हैं कि उनका अर्थ किया जा सके ।

 

    अपनी प्रगति जारी रखो ।

 

    हमारे आशीर्वाद और रक्षण हमेशा तुम्हारे साथ हैं ।

११ मार्च १९३१

 

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    कल रात कुछ समय के ध्यान के बाद जब मैं सोने ही वाला था तो

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     १ यह पत्र यद्यपि माताजी का लिखा हुआ हे पर शायद श्रीअरविन्द का लिखवाया हुआ हो ।

 

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    हृदय से ऊपर का सारा शरीर किसी ऊर्जा से भर गया । मैंने और

    कुछ नहीं केवल निरीक्षण किया । यह कुछ ही रहा । मेरे साथ 

    ऐसा दो-तीन बार हो चूका है और पिछली बार जब यह हुआ तो

    कुछ मिनटों तक रहा था । मैं जानना चाहूंगा की यह क्या है । क्या

    यह कुण्डलिनी शक्ति की अनुभूति है ? जब इस तरह का दबाव हो

    तो कौन-सी वृत्ति अपनाना सबसे अच्छा होगा ?

 

सबसे अच्छी वृत्ति है--स्थिर और अचंचल रहना और अनुभूति को अपना मार्ग लेने देना, उसके बारे में कृछ सोये बिना उसका अवलोकन करना ।

 

   आशीर्वाद ।

४ जुलाई, १९३१

 

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     स्पन्दन-शक्ति के तीव्र अवतरण के फलस्वरूप मैंने विशेष रूप से

     छाती में एक प्रकार की पीड़ा का अनुभव किया । मुझे ऐसा लगा

     कि शरीर उसे रोकना चाहता था ।

 

तुम्हें पूर्ण, अचंचलता रखनी चाहिये ताकि अनुभूति भयंकर रूप से विकृत और कष्टदायक न हो जाये ।

 

    'भागवत शक्ति ' केवल शान्ति और अचंचलता में ही अपने-आपको प्रकट करती और कार्य करती है ।

 

 

आप जानती हैं कि वर्षो से मुझे अपना भौतिक छोड़कर सूक्ष्म

शरीर में अन्वेषणात्मक चक्कर लगाने की आदत है ( इसके बाद

साधक अपनी विभिन्न अनुभूतियों का वर्णन करताहै ) । मैं जानना

चाहूंगा कि क्या मुझे शरीर छोड़ने का यह अभ्यास जारी रखना

चाहिये । यह बहुत मोहक है परन्तु क्या यह आन्तरिक आध्यात्मिक

चीजों की ओर चेतना को खुला रखने के यौगिक विकास का

अंग है ?

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इन अनुभूतियों को एकदम बन्द कर देना कहीं अच्छा है । ऐसा लगता है कि वे तुम्हें ऐसे स्तरों पर ले जाती हैं जो अवांछनीय और बहुत असुरक्षित हैं । वे योग के किसी उद्‌घाटन के लिए जरूरी नहीं हैं ।

२८ मार्च, १९४४

 

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(साधक ने फिर से अपनी एक अनुभूति का जिक्र करते हुए यह भय

प्रकट किया कि वह पूरी तरह से माताजी और श्रीअरविन्द की ओर

खुलने से पहले मर न जाये ओर इस विषय में एक अनुभूति का

उल्लेख किया जिसमें पूर्ण आत्मोत्सर्ग की क्रिया चलती रही ।)

 

निश्चय ही मैंने तुम्हें भुला नहीं दिया है । बिलकुल नहीं । अगर तुम अपना मन पक्का कर लो तो तुम सिद्धि पाने के योग्य जरूर हो और तुमने जो अनुभूति सुनायी है वह मुझे इस बात की काफी पक्की प्रतिज्ञा लगती है कि वह आयेगी ।

 

    मैंने अपने पिछले पत्र में जो लिखा था उसका मतलब बस यही था कि ऐसी चीजें हैं जो तुम्हारी आध्यात्मिक उपलब्धि में देर करवा सकती हैं या फिर तुम्हारे लिए खतरनाक हो सकती हैं । इसका यह अर्थ नहीं है कि उपलब्धि नहीं होगी ।

(११ मई, १९४४)

 

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    जिस अनुभूति का तुम वर्णन कर रहे हो वह तुम्हें तब हुई थी जब शक्ति मुख्य रूप से मन, प्राण और उसके द्वारा भौतिक में काम कर रही थी । इस समय को बीते एक लम्बा अरसा हो चुका । शक्ति अपनी क्रिया में और अधिक नीचे आ चुकी है और अब केवल जड़ में ही नहीं, अवचेतन और निश्चेतन में भी कार्यरत है । जब तक तुम इस उतरती हुई गति का अनुसरण न करो और इस शक्ति को अपने शरीर और चेतना के जड़-भौतिक क्षेत्रों में कार्य न करने दो तब तक तुम अपने- आपको आगे बढ़ सकने के अयोग्य, रास्ते के किनारे असहाय खड़ा पाओगे । और उस शक्ति

 

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को कार्य करने देने के लिए सभी गतिविधियों, आदतों रुचियों पसन्दों, आवश्यकताओं के भाव आदि के विस्तृत समर्पण की बहुत अधिक आवश्यकता है ।

 

    बुलेटिन में श्रीअरविन्द का लेख ध्यान से पढ़ो, वह समझने में तुम्हारी सहायता करेगा ।

२० नवम्बर, १९४९

 

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कभी-कभी जब मैं ध्यान करता हूं तो लगता हे कि शरीर

गायब हो गया है । किसी तरह का भौतिक संवेदन नहीं होता

लकिन साथ ही मैं अपने चारों ओर की सभी चीजों के बारे में

सचेतन होता हूं । मेरी चेतना मेरे सिर में एक विचार के रूप में रह

जाती है । कभी-कभी मेरे मन में एक भी विचार नहीं होता, उसमें

विचार आते तो हैं लकिन वे किसी प्रकार का घपला पैदा किये

बिना निकल जाते हैं । यह अवस्था आराम की तरह सुखकर होती

हे । माताजी, यह ठीक-ठीक क्या अवस्था है ?

 

यह अपने-आपको बाहरी चेतना से, पुरुष-भौतिक में साक्षी पुरुष-की ओर खींच लेना है । निश्चय ही, वहां बहुत विश्राम मिलता है ।

 

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एक रात स्वप्न-अनुभूती हुई, जाग्रत् अन्तर्दर्शन कह सकते हैं 

इसे ।  मैंने दो 'सत्ताएं देखीं लेकिन मैं उनके चेहरे न पाया । दो

लम्बे मजबूत काठीवाले व्यक्ति । ऐसा लगता था कि वे भारी

मखमली कोट पहने हैं  (लेकिन बाद में लगा कि के शायद

अपनी पीठ पर वनस्पतियों का भार ढो रहे थे जिसमें से कभी-

प्रकाश निकलता था); वे मेरे नजदीक आये और मेरी ओर

ताकने लगे । डर न लगा । मैंने उनसे कहा, ''अगर तुम माताजी

 

''दिव्य शरीर'' , अब सेंटेनरी वाल्युम १६ में प्रकाशित ।

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के पास से आये हो जो चाहो करो, अन्यथा तुम्हारे साथ मरा

कोई सम्बन्ध नहीं है, तुम चाहे कोई क्यों न हो । मैं दृढ़ता के साथ

तुम्हारा प्रभाव से अलग होता हूं और तुम मेरा एक बाल भी न छु

सकोगे  । "  साथ ही मैनें चुपचाप आपका नाम लेना शुरू कर दिया

और अन्तर्मुख हो गया । लेकिन फिर उनके क्रियाकलाप पर

नजर टिकाये रहा । उन्होंने कुछ देर एक-दुसरे से बातचीत की । मेरा

ख्याल है कि वे मेरी बात पर मुस्कुराये । फिर उन्होंने अपनी पीठ पर

से कोई चीज खिंची जो चमकते प्रकाश-सी दिखायी दी । मैं ज्यादा

विस्तार में स्पष्ट न देख पाया । फिर वे धीरे-धीरे कमरे से बाहर हो

गये और मैं पूरी तरह जाग गया ।

 

मैं यह जानने के लिए उत्सुक हूं कि वे कौन थे जो घोड़े पर

सवार जुड़वां भाई से लगते थे । ऐसी अवस्था में कैसी वृत्ति अपनानी

चाहिये ? यह तो स्पष्ट है कि भय न होना चाहिये परन्तु क्या कोई

विशेष उपाय है जिससे किसी प्रकार का गुह्य कौशल विकसित किया

जा सके जो मूर्त शक्ति या सत्ता की सच्ची प्रकृति को पहचान सके ?
 

तुम्हारी मनोवृत्ति बिलकुल ठीक थी और ऐसी अवस्थाओं के लिए यही सबसे अच्छी है ।

 

   वे, यमज घुड़सवार चिकित्सक अश्विनी कुमार हो सकते हैं ।

१८ फरवरी, १९५२

 

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अगर ' ज्वाला ध्यान यह ' वह भगवान् अन्दर ं अगर ' यह भव करूं

ज्वाला ' एक भगवान् ' अगर ' हर भव करूं क्या यह

आप '' अन्दर करना '' ' 2

 

निःसंशय रूप से हां, यह चैत्य गहराइयों की ओर एक महत्त्वपूर्ण कदम है ।

१९६९

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    तुम्हारा अवलोकन बहुत कच्चा है । ''अन्दर से'' आनेवाले सुझावों और आवाजों के लिए कोई नियम नहीं बनाया जा सकता । तुम्हारे ''अन्दर'' का मतलब कुछ भी हो सकता है । तुम्हें अपने अवलोकन को प्रशिक्षित करना चाहिये और जिन स्रोतों से सुझाव आते हैं उन्हें अलग-अलग पहचानने की कोशिश करनी चाहिये । आवाज या सुझाव तुम्हारी अपनी अवचेतना से आ सकते हैं या किसी ज्यादा ऊंची चीज से । अगर तुम जान सको कि यह कहां से आ रहा है तब तुम फैसला कर सकते हो कि उसका अनुसरण किया जाये या नहीं ।

 

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